आज समय की मांग है तो समय के साथ ही
खुद को बदल कर आगे बढ़ रही हैं औरतें
चाँद पर जाना क्या पुरुषों की जागीर है ?
क्या हुआ गर चाँद तक पहुंची हमारी औरतें
वर्चस्व की भूख जहाँ में होती है किसे नहीं
पति की प्रतियोगी नहीं साथी होती हैं औरतें
कब थी वो सफल, सशक्त, परिवार की धुरी भी ?
पुरुषों के अहंकार से सदा चोट खाएं औरतें
करती काम पुरे मन से वो ,इसलिए 'कैरियर' में व्यस्त हैं
नौकर घर गैज़ेटेस सब संभालती हैं औरतें
परिवार नहीं परायापन है उनकी सबसे बड़ी उलझन
पूरी ज़िन्दगी देकर भी परायी ही रह गयी औरतें
अपने मन का पहनना भी यहाँ क्या ज़ुल्म है ?
और कहते हैं भाई आज़ाद तो हैं ये औरतें !
बच्चों से आबाद घर नौकर भी हैं रखे हुए
क्यूंकि और इससे बेहतर काम करना चाहें औरतें
घर में जिनको हम नौकर नौकर हैं बुला रहे
वो भी तो ज्यादातर ही हैं औरतें
शादियों के नाम पर छीनी गयी पहचान तो
कुछ 'लिवइन ' में रहकर अपना मान पाती औरतें
कोख किराए पर ढूंढें या वो खुद पैदा करें
ये निर्णय उनका है जो ठीक लगे करें औरतें
आधुनिकता ने नहीं छीना ममता प्रेम सौहार्द परिवार
वक़्त और हालात के हिसाब से खुद निर्णय लेंगी औरतें
ए सुदर्शन तेरी औरतों की परिभाषा हमे नहीं अच्छी लगी
आगे आगे कहीं नहीं मिलेंगी पुरानी तथाकथित 'सुदर्शन औरतें'
Seema Kaushik is a poet based in Faridabad, India. She is an engineering graduate, who spent most of her life as a homemaker. After being forced to live according to society’s rules, she has finally discovered her voice in her 50s. Now, she writes to be free.
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2 thoughts on “बदली हुई औरतें”
Bahut hi badhiya likha hai. 👌
Keep writing. More and more power to the amazing women out there! 🙌
Bahut hi badhiya likha hai. 👌
Keep writing. More and more power to the amazing women out there! 🙌
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thanks laksh for such inspiring words ! it means a lot !!
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