पता चले ना चले , वक़्त गुजर जाता है
शाम जब आती है , सूरज भी ढल जाता है
ज़िन्दगी की शाम से इतना ना घबरा
वक़्त की क़द्र कर ,दिन ज़रूर आता है
कोई समझे या ना समझे तुझे दोस्त
गौर कर खुद को तू कितना ,समझ पाता है
कोई अंधा सिर्फ आँखों से नहीं होता
दिलोदिमाग का पर्दा बड़ा सताता है
लब मुस्काते हैं उसके और आँखे सूनी
होता है यूँ दर्द जब हद से गुजर जाता है
क्यों समझते हैं हमे लोग कमज़ोर
हमारे साथ भी, भीतर भी, विधाता है
आप होंगे बहुत मशहूर ,अमीर ,काबिल माना
हम खड़े हैं सामने तो कुछ तो हमे आता है
पता चले ना चले , वक़्त गुजर जाता है
शाम जब आती है , सूरज भी ढल जाता है
✍️ सीमा कोशिक 'मुक्त' ✍️
Seema Kaushik is a poet based in Faridabad, India. She is an engineering graduate, who spent most of her life as a homemaker. After being forced to live according to society’s rules, she has finally discovered her voice in her 50s. Now, she writes to be free.
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10 thoughts on “वक़्त”
बहुत खूबसूरती से कह दिया आपने
आप होंगे बहुत मशहूर ,अमीर ,काबिल माना हम खड़े हैं सामने तो कुछ तो हमे आता है
अप्रितम, अनुपम , रचना😊
बहुत खूबसूरती से कह दिया आपने
आप होंगे बहुत मशहूर ,अमीर ,काबिल माना हम खड़े हैं सामने तो कुछ तो हमे आता है
अप्रितम, अनुपम , रचना😊
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khushi hui aapne itne dil se padha ! दिल से शुक्रिया ! : )
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👌👌
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It has been a long time since i have read anything in Hindi, my childhood was in New Delhi 🙂 Thank you. Well written
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thank you so much you read it and appreciate it ! grateful ! : )
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Amazing👌
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happy n thankful ! 🙂
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Most welcome,dear!!
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क्यों समझते हैं हमे लोग कमज़ोर
हमारे साथ भी, भीतर भी, विधाता है
bahut hi badiya
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thanks ankit ! : )
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