हालातों का गुलाम 'दिल'...राहतों का तलबगार रहा उलझी रही ज़िन्दगी ..........उलझा सा किरदार रहा कौन चाहता है अपने.... दर्देदिल की नुमाइश करना बर्दाश्त से बढ़ने लगा दर्देदिल.....तभी चीत्कार रहा ज़िन्दगी के मंच पे बदहवास खड़े...हम सोचा किये कसूर हमारा ही था क्या......जो जीना सोगवार रहा स्कूलों में जीवन जीने का... हुनर भी सिखाया जाए इस हुनर के बिना हमारा जीना... हर तरह दुश्वार रहा सीधा-सच्चा होना इस दुनिया में गुनाह सबसे बड़ा या रब ! यही गुनाह हमसे क्यों .......बारम्बार हुआ हम छोड़ दें ..पुरानी बातों यादों किस्सों को.. मगर उनका ...हमें छोड़ने से.. हर बार क्यों.... इंकार रहा अच्छे लोगों आओ ..जियें भरपूर.. नयी दुनिया बसायें, हर बार हमारा ही.. हर एक से ........यही इसरार रहा ✍️ सीमा कौशिक 'मुक्त' ✍️
बहुत सुंदर
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