उठ पाए न तन से ऊपर, वो मन तक क्या पहुँचेगा
इक पगली बैठी सोच रही ये रिश्ता कहाँ पहुँचेगा
उसको तन की भूख नहीं है इतना तो वो जान गयी
क्या कोई मिल पायेगा जो उसके मन तक पहुँचेगा
करनी और कथनी में अंतर, दिखता तो था पहले भी
अंतर इतना साफ़ हुआ, वो दिल तक क्या पहुँचेगा
इक पगली बैठी सोच रही ये रिश्ता कहाँ पहुँचेगा
कोई अपेक्षा इसको तो पहले भी नहीं थी उससे पर
उसकी अपेक्षा बढ़ती जाए, ये इसने कब सोचा था
इक पगली बैठी सोच रही ये रिश्ता कहाँ पहुँचेगा
जो खुद इतना उलझा है उससे मन कोई क्या सुलझेगा
जो लेना ही लेना जाने वो देना कहाँ कब सीखेगा
इक पगली बैठी सोच रही ये रिश्ता कहाँ पहुँचेगा
✍️ सीमा कौशिक 'मुक्त' ✍️
Seema Kaushik is a poet based in Faridabad, India. She is an engineering graduate, who spent most of her life as a homemaker. After being forced to live according to society’s rules, she has finally discovered her voice in her 50s. Now, she writes to be free.
View all posts by seemakaushikmukt
बहुत सुंदर।
LikeLiked by 2 people
Thank you so much 💐
LikeLiked by 1 person