संस्मरण-1

                  आज वो बैठी सोच रही है वो पुराने दिन जब पूर्वी दिल्ली के एक मकान में रहती थी। सबसे बड़ी बेटी होने के साथ माँ पापा की आँखों का तारा जो भाई बहनों की लाड़ली दीदी थी। आपस में प्यार था, खूबसूरत संसार था। उसे नहीं मालूम था हालात इस उम्र तक ये रुख लेंगे  कि वो ये गाने पर मज़बूर हो जायेगी 
                              "रस्ता न कोई मंज़िल ,दीया है, न कोई साहिल ,ले के  चला मुझको 'ए दिल', अकेला कहाँ ! "
                  उसके पापा प्यार तो बहुत करते थे पर महत्वकांक्षी भी थे। मात्र सरकारी आदमी बन कर नहीं रहना था उन्हें। सपने ऊँचे इसीलिए साझेदारी में उन्होंने एक सिनेमा हॉल खोला, जो चल निकला। वो छोटी सी बच्ची जहाँ भी जाती, घर, रिश्तेदार, पड़ोस या स्कूल, खूब प्यार और स्नेह मिलता। लेकिन सब अच्छा ही अच्छा हो तो उसे ज़िन्दगी नहीं कहते। सो ज़िन्दगी ने करवट बदली साझेदारों के मन में लालच आ गया,उसके पापा जो दिन रात उसमें मेहनत करते थे, उनपर ही सवालात उठने लगे और धीरे धीरे काम बंद हो गया। शुक्र है भगवान का पापा ने नौकरी छोड़ी नहीं थी लेकिन क़र्ज़ के बोझ के तले दबते चले गए। घर की छत बिक गयी और किराये के एक कमरे के घर में जाना पड़ा। माँ-बाप और चार भाई बहन जिन्होंने तंगी नहीं देखी थी ,मुस्कुराना भूल गए। पर वो आज भी नहीं भूली, अपने निकट रिश्तेदार( जो साझेदार भी थे ) का घर के बाहर आकर शोर मचाना और पापा को गाली देना। रिश्तों का नया रूप देखा उसने जो रूपये-पैसों से बदल जाता है। छोटी सी उम्र में माँ और पापा को रोते देखना ,कितना असहाय महसूस करती थी वो। आठ वर्ष की उम्र थी उसकी !जैसे-तैसे आटा गूँधती और अपने छोटे भाई बहनों को खिलाती, फिर मम्मी पापा को देती। माँ कहती, "बेटा, पापा को खिलाओ" ,पापा कहते, "माँ को खिलाओ"। वो एक टुकड़ा ज़बरदस्ती पापा को खिलाती और एक टुकड़ा माँ को और प्यार से  माँ उसे। और उस दिन उसका अपने माँ बाप से अटूट बंधन बँध गया जिसमे उसने सोचा कि वो कभी ऐसा कोई काम नहीं करेगी जो उसके माँ-पापा को दुःख दे। 
बाकी का जीवन माँ-पापा की इच्छा से बिता दिया। वो शायद गलत थी। ज़िन्दगी में कुछ फैसले "हाल और हालात" के हिसाब से लिए जाते हैं ना कि भावनाओं में ! पर कहते हैं न 
                         "मिले न फूल तो काँटों से दोस्ती कर ली ,इसी तरह से बसर हमने ज़िन्दगी कर ली"    
   धीरे धीरे मम्मी पापा की मेहनत से सब बदलने लगा, कर्जमुक्त होकर पापा ने नौकरी में मन लगाया और फिर से एक बार घर में ख़ुशियाँ चहचहाने लगीं।    
       ✍️ सीमा कौशिक 'मुक्त' ✍️ 

2 thoughts on “संस्मरण-1

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s