नारी





अनकहा अंतर्मन   
अनकही अंतर्व्यथा 
अनकहा कह दूँ क्या 
अव्यक्त भावना 
सोच से परे अव्यक्त नारी 
कुछ कही, कुछ अनकही 
नारी अव्यक्त भी ,अभिव्यक्त भी 
नारी के इंद्रधनुषी रंग 
देह से परे अव्यक्त सी नारी 
सम्पूर्ण अस्तित्व से परिचित होना चाहते हो 
कर हिम्मत कह दूँ क्या ?
उसके सम्पूर्ण अस्तित्व से अपरिचित तुम 
नारी सम्पूर्ण अस्तित्व 
नारी अंतर्मन -दर्पण  
नारी अंतर्मन - एक आइना 
नारी के मन का हस्ताक्षर 
नारी अभिव्यक्ति 
नारी के मन का मोल ?
नारी का अनमोल अंतर्मन 
नारी की चुप्पी में छुपा इंद्रधनुष 
मालूम नहीं नारी को कोई 
कैसे परिभाशित करे    
जितना लिखे वो कम लगे 
उसका क्या पता क्या हमें 
अप्रत्याशित लगे
       ✍️ सीमा कौशिक 'मुक्त' ✍️ 

गद्य गीत

  💐💐 पढ़ियेगा ज़रूर बहुत कुछ सोचने पर करेगा मज़बूर 💐💐
             "तो क्या हुआ "
एक था किसान जी, चलता था सीना तान जी   
देखा क्यों आजकल, झुकी कमर किसान की  
बात ये पता चली ,हवा चली गली-गली 
उसका बेटा फौजी था, देशसेवा करता था 
देश की मिट्टी का, क़र्ज़ अदा करता था 
घर में थी पत्नी, बहू, और एक पोता भी  
ठीक चल रहा था सब, कुछ नहीं परवाह थी 
वक़्त ने ढाया कहर, बिखर गयी शाम-ओ-सहर  
बेटे की मौत की खबर, सीना कंधे झुका गयी 
करुण क्रंदन ह्रदय में, आँसुओं की बाढ़ थी 
देखते ही देखते,  खुशियाँ सारी लुट गयी
बेवा बहू और बेबस माँ, देख कर सिहर गयीं 
वो पूछता था डाल-डाल, कहाँ गया तू मेरे लाल?   
तू तो सहारा था मेरा, तेरी कमी है सालती 
तभी सुनो जी ध्यान से! लाश आयी सम्मान से !
तिरंगे में लिपटी हुई ,सलामी दी सबने शान से
बड़े सम्मान से उसका अंतिम संस्कार किया गया 
सभी ने उसे शहीद का पिता, कह सम्बोधित किया 
अब उस परिवार की बहुत बड़ी पहचान थी 
मीडिया और अखबारवालों की, आ गयी बाढ़ थी 
और इस सम्मान ने, कुछ पल को, मरहम रख दिया 
नम आँखें थी मगर था, सीना गर्व से तना हुआ 
उसे लगा देश के लिए की, कुर्बानी व्यर्थ न जायेगी 
देश की मिट्टी उस के लाल को, कभी भुला न पाएगी 
गम के अँधेरों में यूँ ही,, एक महीना गुज़र गया 
कागज़ी कार्यवाहियों, का काम सर पे आ गया 
ज्यादा पढ़ा-लिखा न था, अधिकारियों से क्या करता बात?
ऑफिसों के रोज़ वो, चक्कर लगाता रहा 
हर कोई कागज़ों में, कमी बताता रहा ,
उनमे से एक बेशर्म था, उसने रिश्वत माँग ली 
दिन का सुकून रातों की नींद सब बेटा ले गया 
देश और समाज जो थकता नहीं था कहते यही 
देशभक्ति  की कीमत सदा ही अमूल्य रही 
इसी पशोपेश में, कंगालियों के वेश में 
खींचता रहा वो दिन, बूढ़ा हुआ वो दिन-ब-दिन 
एक दिन मन में ठानकर वो ऑफिस गया जानकर
अधिकारी से बोला वो शायद नहीं तुम जानते  
शहीद था बेटा मेरा ,देशभक्त था बेटा मेरा 
उसने पलट के जो कहा "तो क्या हुआ "तो क्या हुआ 
यहाँ बहुत शहीदों की है फाइलें अटकी हुईं 
उसका जो कहना 'क्या हुआ' सीधा दिल में उतर गया 
सीना चीयर कर गया वो जार जार कर रोया 
अब कहाँ जाऊं मैं किस तरह निभाऊं मैं 
बेटा मेरा चला गया अब कैसे ज़िन्दगी चलाऊँ मैं 
थके-थके से थे कदम बुझा बुझा सा उसका मन 
एक और वाक़या घर में इंतज़ार उसका कर रहा 
जैसे घर में रखा कदम, पोता भाग आया एकदम 
दादू ! मुझे फौज में जाना है,पिता ने देश के लिए दी जान 
मुझे भी पिता की तरह, फ़र्ज़ अपना निभाना है 
सन्न हो गया बूढ़ा बाप, दहलीज़ पर बैठा उदास 
शून्य में निहारता रहा, हवाओं मे शब्द गूंजते रहे
 "तो क्या हुआ " "तो क्या हुआ" 
कहाँ गया वो मीडिया कहाँ गए अखबार वो 
बड़े बड़े वादे थी कर रही सरकार जो 
अकेला था भटक रहा कोई नहीं है साथ अब 
खोखले वादों पे टिकी ये देश की सरकार जब  
ऑफिसों में अटकी हुई फाइलें हज़ार हैं 
शहीदों के परिवारों की हालत खराब हैं 
ये सत्यकथा मैंने कही क्या आप भी कहेंगे यही 
तो क्या हुआ ! तो क्या हुआ !
         ✍️ सीमा कौशिक 'मुक्त' ✍️

अंतस

अंतस की वीणा पर कैसी ,धुन ये प्रीत की गायी जाना  
मन के तार हुए झंकृत सब.....आयी याद तुम्हारी जाना 
भूल गई मैं दर्द विरह के...विस्मृत रैन-दिवस हुई तड़पन 
जब देखा जानम फिर तुमने...बिसरा रूठ के तेरा जाना  
               ✍️ सीमा कौशिक 'मुक्त' ✍️ 

संस्मरण-1

                  आज वो बैठी सोच रही है वो पुराने दिन जब पूर्वी दिल्ली के एक मकान में रहती थी। सबसे बड़ी बेटी होने के साथ माँ पापा की आँखों का तारा जो भाई बहनों की लाड़ली दीदी थी। आपस में प्यार था, खूबसूरत संसार था। उसे नहीं मालूम था हालात इस उम्र तक ये रुख लेंगे  कि वो ये गाने पर मज़बूर हो जायेगी 
                              "रस्ता न कोई मंज़िल ,दीया है, न कोई साहिल ,ले के  चला मुझको 'ए दिल', अकेला कहाँ ! "
                  उसके पापा प्यार तो बहुत करते थे पर महत्वकांक्षी भी थे। मात्र सरकारी आदमी बन कर नहीं रहना था उन्हें। सपने ऊँचे इसीलिए साझेदारी में उन्होंने एक सिनेमा हॉल खोला, जो चल निकला। वो छोटी सी बच्ची जहाँ भी जाती, घर, रिश्तेदार, पड़ोस या स्कूल, खूब प्यार और स्नेह मिलता। लेकिन सब अच्छा ही अच्छा हो तो उसे ज़िन्दगी नहीं कहते। सो ज़िन्दगी ने करवट बदली साझेदारों के मन में लालच आ गया,उसके पापा जो दिन रात उसमें मेहनत करते थे, उनपर ही सवालात उठने लगे और धीरे धीरे काम बंद हो गया। शुक्र है भगवान का पापा ने नौकरी छोड़ी नहीं थी लेकिन क़र्ज़ के बोझ के तले दबते चले गए। घर की छत बिक गयी और किराये के एक कमरे के घर में जाना पड़ा। माँ-बाप और चार भाई बहन जिन्होंने तंगी नहीं देखी थी ,मुस्कुराना भूल गए। पर वो आज भी नहीं भूली, अपने निकट रिश्तेदार( जो साझेदार भी थे ) का घर के बाहर आकर शोर मचाना और पापा को गाली देना। रिश्तों का नया रूप देखा उसने जो रूपये-पैसों से बदल जाता है। छोटी सी उम्र में माँ और पापा को रोते देखना ,कितना असहाय महसूस करती थी वो। आठ वर्ष की उम्र थी उसकी !जैसे-तैसे आटा गूँधती और अपने छोटे भाई बहनों को खिलाती, फिर मम्मी पापा को देती। माँ कहती, "बेटा, पापा को खिलाओ" ,पापा कहते, "माँ को खिलाओ"। वो एक टुकड़ा ज़बरदस्ती पापा को खिलाती और एक टुकड़ा माँ को और प्यार से  माँ उसे। और उस दिन उसका अपने माँ बाप से अटूट बंधन बँध गया जिसमे उसने सोचा कि वो कभी ऐसा कोई काम नहीं करेगी जो उसके माँ-पापा को दुःख दे। 
बाकी का जीवन माँ-पापा की इच्छा से बिता दिया। वो शायद गलत थी। ज़िन्दगी में कुछ फैसले "हाल और हालात" के हिसाब से लिए जाते हैं ना कि भावनाओं में ! पर कहते हैं न 
                         "मिले न फूल तो काँटों से दोस्ती कर ली ,इसी तरह से बसर हमने ज़िन्दगी कर ली"    
   धीरे धीरे मम्मी पापा की मेहनत से सब बदलने लगा, कर्जमुक्त होकर पापा ने नौकरी में मन लगाया और फिर से एक बार घर में ख़ुशियाँ चहचहाने लगीं।    
       ✍️ सीमा कौशिक 'मुक्त' ✍️ 

नाराज़

वो मुझसे नाराज़ होने का भी हक़ रखता है 
जो पाने की ख़ुशी से ज्यादा खोने का डर रखता है 
उसके अनबोले गुस्से में भी प्यार  झलकता है   
जो हमें सराहने का दिन-रात दम रखता है 
               ✍️ सीमा कौशिक 'मुक्त' ✍️ 

भीगी रात

 "बरसात की भीगी रातों में ",राधिका चोपड़ा जी को ये ग़ज़ल गाते सुना तो 
कुछ अलग भाव उमड़ पड़े और ये गीत प्रस्फुटित हुआ ---

बरसात की भीगी रातों में 
गीली लकड़ी-सा सुलगा मन 
इस करवट भी बेचैनी और  
उस करवट भी थी तड़पन
    बरसात की भीगी-----

बरसात छमाछम जब बरसी   
उसने इस दिल पर दी थपकी 
बदरा टप-टप नैना टप-टप 
ये रूह हमारी फिर तरसी 
    बरसात की भीगी-----

तुम किसी बहाने आ जाते
न ख़्वाबों में भी थी अड़चन 
मन दर्द विरह का न भूला 
चाहें नैन खुले थे या थे बंद 
बरसात की भीगी-----

खोजा दिल तो तुम हाज़िर थे 
फिर क्यों उमड़ी थी तड़पन 
साँसें मेरी तुम चला रहे थे  
और जारी भी थी धड़कन 
बरसात की भीगी रातों में ----

               ✍️ सीमा कौशिक 'मुक्त' ✍️