क्या औरत के बिन घर घर होता है जहाँ सिर्फ तन्हाइयों का डर होता है जहाँ होती है अपनेपन की कमी जहाँ दिन-रात बस बसर होता है क्या ---- जहाँ न सफाई न खाने की शुद्धता जहाँ तन मैला मन अशुद्ध रहता है जहाँ घर सांय-सांय,आपस में भाँय - भाँय दिल में दर्द का डेरा रहता है क्या------ दुनिया को अकेले झेलना उसकी विकृत मानसिकता के साथ बेबसी और नशे का चंगुल जीवन में अदृश्य अँधेरा रहता है क्या -------- कोई प्यार से जब उस घर में जाए दिलको सन्नाटा महसूस होता है इक कमी का अहसास हरसूँ खालीपन ठहाकों में होता है क्या -------- ✍️ सीमा कौशिक 'मुक्त' ✍️
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औरत
ज़्यादातर औरत हैं शोषित और अपमानित फिर भी स्वयं पर कितनी हैं वो गर्वित ! क्यूंकि उन्हें बनना है त्यागी, बलिदानी और महान क्यूंकि उन्हें समाज में होना है ,बन 'देवी' प्रतिष्ठित यही प्रशिक्षण तो वो बचपन से हैं पाती अपने अधिकारों को ख़ुशी से त्याग पाती ये कैसी विडंबना !एक औरत माने ज़रूरी "औरत पर अंकुश पुरुष का" !ये कैसी मज़बूती?
औरत
औरत तू सर्वश्रेष्ठ रचना व रचनाकार है तू गुरु, तू माँ, तू पिता भी है तू घर के अंदर और बाहर भी है तेरे पास प्यार और सत्कार भी है तुझे सभी का ख्याल भी है अत्याचारियों के लिए हुंकार भी है सभी सदगुणों से तू युक्त है दिखती है परतंत्र पर तू मुक्त है तेरी सहनशक्ति सराहनीय है तू एक अहसास एक अनुभूति है तेरे बिना संभव नहीं सृष्टि है दुःख तुझे डराते हैं पर तू डरती नहीं है अपने संसार के लिए पीछे हटती नहीं है तेरी पहचान तू खुद है पति या बच्चा नहीं है समाज में किसी भी रूप में तेरा योगदान सराहनीय है समाज में दोयम दर्जे से तेरी आत्मा घायल है जबकि तेरे गुणों का हर कोई कायल है तुझे औरत होने का मलाल है ये पुरुषों पर बहुत बड़ा सवाल है त्याग के नाम पर तू भ्रमित न हो अपने ही अस्तित्व पर शंकित न हो वो कर जो करना चाहती है 'लड़' गर लड़ना चाहती है तेरा विश्वास ही तेरे जीवन की थाती है निर्माण तेरा शस्त्र है विध्वंश नहीं तू तो सृष्टि का 'आरम्भ 'है अंत नहीं ✍️सीमा कौशिक 'मुक्त' ✍️