उठ पाए न तन से ऊपर, वो मन तक क्या पहुँचेगा इक पगली बैठी सोच रही ये रिश्ता कहाँ पहुँचेगा उसको तन की भूख नहीं है इतना तो वो जान गयी क्या कोई मिल पायेगा जो उसके मन तक पहुँचेगा करनी और कथनी में अंतर, दिखता तो था पहले भी अंतर इतना साफ़ हुआ, वो दिल तक क्या पहुँचेगा इक पगली बैठी सोच रही ये रिश्ता कहाँ पहुँचेगा कोई अपेक्षा इसको तो पहले भी नहीं थी उससे पर उसकी अपेक्षा बढ़ती जाए, ये इसने कब सोचा था इक पगली बैठी सोच रही ये रिश्ता कहाँ पहुँचेगा जो खुद इतना उलझा है उससे मन कोई क्या सुलझेगा जो लेना ही लेना जाने वो देना कहाँ कब सीखेगा इक पगली बैठी सोच रही ये रिश्ता कहाँ पहुँचेगा ✍️ सीमा कौशिक 'मुक्त' ✍️