मासूम हम हैं वो बन रहे हैं तीरे-नज़र फिर क्यों तन रहे हैं ... हमें समझ न सके तुम अब तक क्यों बेवजह अपने बन रहे है... हमें न हिम्मत गिनाएँ गलती हमारी गलती वो गिन रहे हैं ... प्यार के दो लफ्ज़ सुन न पाए ज़माने भर की हम सुन रहे हैं ... जले ख्वाब आँखों के सामने पर ख्वाब हम अब भी बुन रहे हैं ... हमें किसी से नहीं शिकायत दुनिया नहीं रब को चुन रहे हैं ... ✍️सीमा कौशिक 'मुक्त' ✍️
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मासूम
टूट कर टूटी नहीं रूठ कर रूठी नहीं मिट कर भी मिटी नहीं रीत कर भी रीति नहीं जाने किस मिट्टी से बनी है तू फीनिक्स पक्षी सी लगे है तू पर आइना देखूँ तो तू आज भी 'मासूम 'लगती है