ए ज़िन्दगी ! तेरे जाल में जो उलझा नहीं वो पार है तुझसे प्यार है मुझे बहुत पर उलझने से इंकार है सब पर तू मुस्कुराती ज़रूर है पर बुरी ही क्यों लगती है तू जो ज़िंदादिली से ना जिया तो ज़िन्दगी बेकार है तू गुलाब की तरह खिली खिली काँटों से मगर घिरी हुई आ हाथ बढ़ा के लपक लूँ मैं कांटे चुभें स्वीकार है तू जिसमे वो जीवंत सा उत्साह से भरा हुआ बाधाएं उससे डर रही जीत उसीका अधिकार है कहती है आँखों की चमक मुस्कान भी कुछ कह रही अपने पे गुरुर का है सुरूर तू मुझमे बरकरार है
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ज़िन्दगी 1
कुछ अपना नहीं फिर भी अपना सा है ज़िन्दगी तू लगे सपना सा है