ए ज़िन्दगी ! तेरे जाल में जो उलझा नहीं वो पार है तुझसे प्यार है मुझे बहुत पर उलझने से इंकार है सब पर तू मुस्कुराती ज़रूर है पर बुरी ही क्यों लगती है तू जो ज़िंदादिली से ना जिया तो ज़िन्दगी बेकार है तू गुलाब की तरह खिली खिली काँटों से मगर घिरी हुई आ हाथ बढ़ा के लपक लूँ मैं कांटे चुभें स्वीकार है तू जिसमे वो जीवंत सा उत्साह से भरा हुआ बाधाएं उससे डर रही जीत उसीका अधिकार है कहती है आँखों की चमक मुस्कान भी कुछ कह रही अपने पे गुरुर का है सुरूर तू मुझमे बरकरार है
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खुद
खुद में झाँक कर देखा कभी खुद को आँक कर देखा कभी कितनी ख़ुशी कितना आनंद है अंदर खुद में डूब कर देखा कभी !
मासूम
टूट कर टूटी नहीं रूठ कर रूठी नहीं मिट कर भी मिटी नहीं रीत कर भी रीति नहीं जाने किस मिट्टी से बनी है तू फीनिक्स पक्षी सी लगे है तू पर आइना देखूँ तो तू आज भी 'मासूम 'लगती है